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तमू॒तयो॑ रणय॒ञ्छूर॑सातौ॒ तं क्षेम॑स्य क्षि॒तय॑: कृण्वत॒ त्राम्। स विश्व॑स्य क॒रुण॑स्येश॒ एको॑ म॒रुत्वा॑न्नो भव॒त्विन्द्र॑ ऊ॒ती ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tam ūtayo raṇayañ chūrasātau taṁ kṣemasya kṣitayaḥ kṛṇvata trām | sa viśvasya karuṇasyeśa eko marutvān no bhavatv indra ūtī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

तम्। ऊ॒तयः॑। र॒ण॒य॒त्। शूर॑ऽसातौ। तम्। क्षेम॑स्य। क्षि॒तयः॑। कृ॒ण्व॒त॒। त्राम्। सः। विश्व॑स्य। क॒रुण॑स्य। ई॒शे॒। एकः॑। म॒रुत्वा॑न्। नः॒। भ॒व॒तु॒। इन्द्रः॑। ऊ॒ती ॥ १.१००.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:100» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जिसको (ऊतयः) रक्षा आदि व्यवहार सेवन करें (तम्) उस सेना आदि के अधिपति को (शूरसातौ) जिसमें शूरों का सेवन होता है उस संग्राम में (क्षितयः) मनुष्य (त्राम्) अपनी रक्षा करनेवाला (कृण्वत) करें, जो (क्षेमस्य) अत्यन्त कुशलता का करनेवाला है (तम्) उसको अपनी पालना करनेहारा किये हुए उक्त संग्राम में (रणयन्) रटें अर्थात् बार-बार उसी की विनती करें जो (एकः) अकेला सभाध्यक्ष (विश्वस्य) समस्त (करुणस्य) करुणारूपी काम को करने में (ईशे) समर्थ है (सः) वह (मरुत्वान्) अपनी सेना में प्रशंसित वीरों का रखने वा (इन्द्रः) सेना आदि की रक्षा करनेहारा (नः) हम लोगों के (ऊती) रक्षा आदि व्यवहार के लिये (भवतु) हो ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को चाहिये कि जो अकेला भी अनेक योद्धाओं को जीतता है, उसका उत्साह संग्राम और व्यवहारों में अच्छे प्रकार बढ़ावें। अच्छे उत्साह से वीरों में जैसी शूरता होती है, वैसी निश्चय है कि और प्रकार से नहीं होती ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

अन्वय:

यमूतयो भजन्तु तं शूरसातौ क्षितयस्त्रां कृण्वत कुर्वन्तु। यः क्षेमस्य कर्त्ता तं त्रां कुर्वन्तो शूरसातौ रणयन्। य एको विश्वस्य करुणस्येशे स मरुत्वानिन्द्रः सेनादिरक्षको न ऊती भवतु ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) सेनाद्यधिपतिम् (ऊतयः) रक्षणादीनि (रणयन्) शब्दयन्तु स्तुवन्तु। अत्र लङ्यडभावः। (शूरसातौ) शूराणां सातिर्यस्मिन्संग्रामे तस्मिन् (तम्) (क्षेमस्य) रक्षणस्य (क्षितयः) मनुष्याः। क्षितय इति मनुष्यनाम०। निघं० २। ३। (कृण्वत) कुर्वन्तु। अत्र लङ्यडभावः। (त्राम्) रक्षकम् (सः) (विश्वस्य) अखिलम् (करुणस्य) कृपामयं कर्म (ईशे) ईष्टे। अत्र लोपस्त आत्मनेपदेष्विति त लोपः। (एकः) असहायः (मरुत्वान्नो०) इति पूर्ववत् ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैर्योऽसहायोऽप्यनेकान् योद्धॄन् विजयते स संग्रामेऽन्यत्र वा प्रोत्साहनीयः। यथा प्रोत्साहेन वीरेषु शौर्य्यं जायते न तथा खल्वन्येन प्रकारेण भवितुं शक्यम् ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जो एकटाच अनेक योद्ध्यांना जिंकतो त्याचा युद्धात व व्यवहारात माणसांनी उत्साह चांगल्या प्रकारे वाढवावा. जसे प्रोत्साहनाने वीरांमध्ये शौर्य उत्पन्न होते, निश्चितपणे असे म्हणता येईल की इतर प्रकारे उत्पन्न होत नाही. ॥ ७ ॥